शिकायत बोल

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गुरुवार, 17 जून 2010

प्रेस

जब बारूद लगा अखबारों की बिल्डिंगें उड़ाई गयीं
सरकार को भी सोचना चाहिए कि अखबारों को सस्ती दर पर जमीनें क्यों दी जाएं?
अखबार वैसे तो एक मिशन के रूप में जाना जाता रहा है जिसका काम आम लोगों के हित साधना है लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में अब यह एक व्यवसाय का रूप ले चुका है। आम आदमी के मन में भी अखबार के प्रति यही सोच बलवती होने लगी है तो इसकी वजह बड़े अखबारों का व्यवहार है जो अखबार के लिए दी गई सरकारी जमीन के उपयोग से सीधे परिलक्षित होती है। अमृत संदेश हो या नवभारत, देशबंधु हो या दैनिक भास्कर यहां तक कि तरुण छत्तीसगढ़ से लेकर छत्तीसगढ़ में यही हाल है। अखबार के दफ्तर कम काम्पलेक्स नजर आने वाले ये मीडिया वाले भले गलतफहमी पाल ले कि इससे आम लोग में कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा लेकिन लोग जानते हैं कि अखबार खोलने के नाम पर दी गई सरकारी जमीनों को दादागिरी के दम पर कैसे काम्पलेक्स में बदला जा रहा है।
पिछले कुछ दिनों से भास्कर के १४ माले के काम्पलेक्स की राजधानी में जमकर चर्चा है और यह भी कहा जा रहा है कि इसके भूउपयोग से लेकर नक्शे तक की स्वीकृति में जमकर दादागिरी चली है और यह चर्चा सच है तो सरकार को भी सोचना चाहिए कि अब अखबारों को सस्ती दर पर जमीनें क्यों दी जाए।

एक अखबार वाले ने तो नई राजधानी में ही नए प्रेस काम्पलेक्स का प्रस्ताव बना लिया है जबकि शुक्ला पेट्रोल पम्प को दूसरे जगह जमीन देने पर बस स्टैण्ड की जमीन खाली करने की खबरें इसी के यहां सबसे यादा छपती रही है।
प्रस्तुतकर्ता: लिन्क- कौशल तिवारी 'मयूख'
देश की राजधानी दिल्ली में भी यही हाल है।

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