शिकायत बोल

शिकायत बोल
ऐसा कौन होगा जिसे किसी से कभी कोई शिकायत न हो। शिकायत या शिकायतें होना सामान्य और स्वाभाविक बात है जो हमारी दिनचर्या का हिस्सा है। हम कहीं जाएं या कोई काम करें अपनों से या गैरों से कोई न कोई शिकायत हो ही जाती है-छोटी या बड़ी, सहनीय या असहनीय। अपनों से, गैरों से या फ़िर खरीदे गये उत्पादों, कम्पनियों, विभिन्न सार्वजनिक या निजी क्षेत्र की सेवाओं, लोगों के व्यवहार-आदतों, सरकार-प्रशासन से कोई शिकायत हो तो उसे/उन्हें इस मंच शिकायत बोल पर रखिए। शिकायत अवश्य कीजिए, चुप मत बैठिए। आपको किसी भी प्रकार की किसी से कोई शिकायत हो तोर उसे आप औरों के सामने शिकायत बोल में रखिए। इसका कम या अधिक, असर अवश्य पड़ता है। लोगों को जागरूक और सावधान होने में सहायता मिलती है। विभिन्न मामलों में सुधार की आशा भी रहती है। अपनी बात संक्षेप में संयत और सरल बोलचाल की भाषा में हिन्दी यूनीकोड, हिन्दी (कृतिदेव फ़ोन्ट) या रोमन में लिखकर भेजिए। आवश्यक हो तो सम्बधित फ़ोटो, चित्र या दस्तावेज जेपीजी फ़ार्मेट में साथ ही भेजिए।
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शनिवार, 8 जनवरी 2011

कार्टून व्यथा

दैनिक जागरण ने क्यों छापा कार्टून
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मैं एक फ्रीलांस कार्टूनिस्ट हूँ दो चार पत्र-पत्रिकाओं में कार्टून देता हूँ और उसी मेहनताने से मेरा काम चलता है। पर जब कई समाचार पत्र मेरे कार्टून मेरी इजाजत और मेरे नाम के बिना धड़ल्ले से छाप लेते हैं यह देखकर दुःख होता है। हम जैसे असंगठित पढ़ेलिखे मजदूर कुछ नहीं कर पाते। कोर्ट-कचहरी में कॉपीराइट का मामला उठाकर सालों तक धन और समय बरबाद करना भी सभी के वश की बात नहीं। 
इन्टरनेट का प्रयोग कुछ लोग  क्या और कैसे करते हैं, यह इसी चीज का एक नमूना है।  कार्टून चुराकर छापना, ताकि मेहनताना न देना पड़े। यह प्रवृत्ति छोटे-बडए तमाम प्रकाशनों में है। इस समाज में संवेदनशील कलाकारों की जगह नहीं है, शायद समाज को बेईमान नेता, अफ़सर, व्यापारी और अपराधियों की ज्यादा जरूरत है। वसे भी कार्टून कला को प्रोत्साहन देने वाले सम्पादकों की प्रजाति ही लुप्तप्राय है, अब कमान हर चीज को बाज़ार बनाने वालों के हाथ में है। मालिक और बाजार के बाज़ीगर सम्पादक हो गये हैं और ये लोग ही पठनीय (?) सामग्री पर हावी रहते हैं। ऐसे में हेराफ़ेरी ही होगी। कार्टून चाहिए जरूर पर फ़ोकट में और कोई कुछ कहे भी नहीं। यह स्थिति सचमुच शर्मनाक है!
श्याम जगोता, नयी दिल्ली 

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